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ऋषिकेश : भागवत कथा का अद्भुत रहस्य: मन, मोह और विषहर नाम की शक्ति का अनावरण – कथा से जीवन का गहरा संदेश


ऋषिकेश कथा का चौथा और पाँचवाँ दिवस: मन के पाँच सिर और विषहर नाम की महिमा

जनमत जागरण @ ऋषिकेश: ऋषिकेश की पावन धरा पर चल रही श्रीमद् भागवत कथा में चौथे दिवस कथा व्यास पंडित श्याम जी दुबे ने मन की प्रकृति और उसके नियंत्रण पर गहन प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मन रूपी सांप के पाँच सिर हैं – काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मोह। यही पाँच सिर जीवन की हर समस्या की जड़ हैं। यदि इन्हें जीत लिया जाए तो जीवन दिव्य हो जाता है।

उन्होंने उद्धव-गोपी संवाद का उल्लेख करते हुए बताया कि गोपियों ने कहा – “हम एक मन वाली हैं, जबकि यह संसार पाँच मन वाला है।” उन्होंने समझाया कि इन पाँच सिरों के कारण ही बार-बार ईश्वर ने अवतार लेकर धर्म की रक्षा की है। उदाहरण स्वरूप भगवान श्रीहरि ने हिरण्यकश्यप के अभिमान का नाश किया, समुद्र मंथन में मोहिनी रूप लेकर मोह का अंत किया, और ध्रुव चरित्र में दिखाया कि सच्चा सहारा पिता की नहीं, परमपिता की गोद में है।

कथा व्यास ने कहा – “इस संसार में कोई ऐसा नहीं, जिसे पद या शक्ति मिलते ही अहंकार न आया हो। अहंकार का अंत हमेशा पतन में ही होता है।” उन्होंने दक्ष यज्ञ प्रसंग सुनाते हुए बताया कि “जहाँ विरोध हो, वहाँ जाना उचित नहीं।” भोलेनाथ के अपमान का परिणाम क्या हुआ, यह इतिहास का बड़ा संदेश है।

अजामिल चरित्र के माध्यम से उन्होंने यह सिखाया कि “जीवन के अंतिम क्षण में भी यदि प्रभु का नाम लिया जाए तो मुक्ति संभव है।” इसी क्रम में कृष्ण जन्म की कथा का रसपान कराते हुए उन्होंने कहा कि हर जन्म प्रभु की योजना है, जो धर्म की स्थापना के लिए होता है।

पाँचवें दिन कथा में कालिया नाग प्रसंग आया। व्यास पीठ से संदेश गूंजा – “मन के विष को कौन निकाले? केवल भगवान के नाम से ही मन का विष निकल सकता है। जैसे कालिया का विष श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श से समाप्त हुआ, वैसे ही जीवन के विष – द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध – केवल हरिनाम से मिटते हैं।”


वर्तमान समय में संदेश

आज समाज में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मोह का विष फैलता जा रहा है। यही कलह, तनाव, अपराध और असंतोष का मूल कारण है। कथा हमें सिखाती है कि समाधान किसी बाहरी साधन में नहीं, बल्कि आंतरिक साधना और प्रभु नाम में है। यदि हम अपने जीवन में श्रवण, मनन और कीर्तन का मार्ग अपनाएँ, तो मन का यह विष शांत हो सकता है।


“सार्थक चिंतन”

कथा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, यह जीवन के गहन सत्य को समझने का माध्यम है। पंडित राधेश्याम जी दुबे का संदेश हमें यह सिखाता है कि भक्ति केवल मंदिर की दीवारों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि हमारे आचरण और व्यवहार में उतरनी चाहिए। जब हम पूजा को केवल कर्मकांड न मानकर जीवन की दिशा बनाते हैं, तब ही धर्म जीवित रहता है।
भक्ति का वास्तविक रूप तब प्रकट होता है जब यह सेवा और करुणा से जुड़ती है। दूसरों के लिए जीना, समाज के प्रति उत्तरदायी होना, और सत्य के मार्ग पर चलना ही कथा का असली उद्देश्य है। इसलिए, कथा सुनना मात्र नहीं, उसे अपने जीवन में उतारना ही सबसे बड़ी साधना है।

✍️ – राजेश कुमरावत ‘सार्थक’
संपादक, जनमत जागरण

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