जीवन की अंतिम घड़ी में नेत्रदान कर गईं श्रीमती ताराबाई कंठाली, दो नेत्रहीनों को मिला उजाला

जब जीवन का दीपक बुझा… तब दो घरों में उजाला कर गईं ताराबाई
नेत्रदान कर मानवता का अनुपम संदेश देकर अमर हो गईं कंठाली
(सुसनेर से हमारे संवाददाता दीपक जैन की समाज को दिशा देने वाली विशेष रिपोर्ट)
जनमत जागरण @ सुसनेर। जीवन की संध्या बेला में, जब अधिकांश लोग मृत्यु की अंतिम घड़ियों में स्वयं तक सीमित हो जाते हैं, तब एक 87 वर्षीय महिला ने मानवता का ऐसा दीप प्रज्वलित किया, जिसकी रोशनी अब दो नेत्रहीनों की दुनिया को रंगों से भर देगी। वरिष्ठ समाजसेवी श्रीमती ताराबाई बसंत कंठाली ने अपनी अंतिम सांसों से पहले नेत्रदान का संकल्प लेकर जीवन के असली अर्थ को परिभाषित कर दिया।
मृत्यु के क्षण में भी दूसरों के जीवन में आशा की किरण जगाने वाली ताराबाई का यह निर्णय समाज के लिए प्रेरणा है। यह नेत्रदान भारत विकास परिषद, आगर मालवा शाखा के माध्यम से सम्पन्न हुआ। संस्था के अनुसार, यह इस सत्र का 21वां एवं शाखा का 34वां नेत्रदान है, जो कंठाली परिवार, सुसनेर की ओर से सम्पन्न हुआ।

मानवता की मिसाल – परिजनों की सहमति और समाज की तत्परता
श्रीमती ताराबाई पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थीं और आगर के निजी अस्पताल में उपचाररत थीं। जब चिकित्सकों ने जीवन की सीमित संभावनाएं बताईं, तब परिवार ने स्वयं उनकी स्वेच्छा से प्रेरणा लेकर नेत्रदान का निर्णय लिया। भारत विकास परिषद के नेत्रदान प्रभारी डॉ. संदीप चोपड़ा, कैलाश माहेश्वरी, विशेष प्रयासकर्ता राजेश मेठी, तकनीशियन अजय यादव और सहायक लखन यादव की तत्परता से यह पुनीत कार्य सम्पन्न हुआ।
दो जीवनों में नई सुबह
नेत्रदान के इन दो रत्नों से अब दो नेत्रहीनों की अंधेरी दुनिया उजाले से भर जाएगी। इस महान कार्य के लिए संस्था ने कंठाली परिवार का आभार व्यक्त किया और समाज को संदेश दिया कि “मृत्यु अंत नहीं, नई शुरुआत है – जब हम दूसरों के जीवन में रोशनी छोड़ जाते हैं।”

संपादकीय दृष्टिकोण – यह सिर्फ दान नहीं, चेतना है
आज जब जीवन मूल्य और मानवीय संवेदनाएं अक्सर स्वार्थ की दीवारों में कैद हो जाती हैं, तब ताराबाई का यह संकल्प हमें सोचने पर मजबूर करता है कि असली संपत्ति क्या है? धन, पद, वैभव – सब यहीं रह जाता है, पर एक संकल्प, एक सेवा कार्य युगों तक गूंजता है। नेत्रदान केवल दो आंखें देना नहीं, बल्कि आशा का संचार करना, अंधकार को उजाले में बदलना और जीवन को उसकी सर्वोच्च सार्थकता देना है।
ताराबाई ने दिखा दिया कि जीवन की यात्रा का अंत भी किसी के लिए नई शुरुआत हो सकता है।
प्रश्न यह नहीं कि हम कब जाएंगे, प्रश्न यह है कि जाते-जाते क्या छोड़ जाएंगे?